صبرا ً على عطـش الهوى
| رَفـَعَ الـنـِّقـابَ وَسَـلــَّـمـا | |
| وبـِحـاجـِبَـيْـه ِ تـَكــَلــَّمـا | |
| وَدَنـا .. وأغـْمَضَ مُقـلتيـــــــــه | |
| تـَغـَنـُّـجا ً.. وتـَبَـسَّـمـا | |
| فـَـوَجَـدْتـُنـي بـعـَبـيــره ِ | |
| رُغـمَ انـطـفائيَ مُغـرَمـا | |
| لاصَقـْتـُهُ خَـطـْـوا ً تـَهـادى | |
| فــي الــغــروب ِ مُـنـَغـَّـمـــا | |
| وهَمَـمْـتُ أسـألُ صبحَهُ | |
| لـظـلام ِ لـيلي َ مَـغـْنـَمـا | |
| فـتـَعَـثـَّرتْ شــفـتي بـِصَـوتــي | |
| فـانـكـَـفـَـأتُ مُـتــَيَّــمــا! | |
| خـَتـَمَ الـذهـولُ فـَمَـا ً تـمـَنـّى | |
| أنْ يُــضـاحِـكَ مَـبْـسَـــمـا | |
| لـكـنـَّمـا عـيـنــايَ مـن | |
| شَــغـَف ٍتـَحَـوَّلـتـا فـَـمـا | |
| فـَرَمَـيْـتُ أحداقي على | |
| عـيـنـيـه ِحـيـن تـَقـَدَّمـا | |
| وعـلى مَــرايـا جـيـدِه ِ | |
| مُـتَـوَسِّـلا ً أنْ يَـفـْـهـمـا | |
| كـادتْ تـَـفــرُّ لـثـغـْـره | |
| شَـفـتي لتـَلـثـمَ بُـرْعُـمـا | |
| فـأعـادَ وَضْعَ نِــقـابـِه ِ | |
| كـيْـدا ً .. وقال مُتـَمْـتِما: | |
| صبراَ على عـَطـَش الهوى | |
| إنْ كـنت َ حـَقــَّا َ مـُغـرَمـا | |
| فالـماءُ أعـذبُ مــا يكون | |
| إذا اسْــتَـبـدَّ بكَ الـظـَمــا | 
